क्या कानून में गोहत्या के लिए मानव-हत्या का प्रावधान है?

पिछले तीन-चार दिनों में देश-विदेश की कुछ घटनाएं इतनी बड़ी खबरें बन गईं कि सर्वोच्च न्यायालय के दो महत्वपूर्ण फैसलों पर जनता का जितना ध्यान जाना चाहिए था, नहीं गया। इन दो फैसलों में से एक है गोरक्षकों के बारे में और दूसरा है नेताओं की अंधाधुंध बढ़ती हुई दौलत के बारे में। इन दोनों फैसलों से अदालत ने राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की जमकर खिंचाई की है। ये दोनों फैसले यह बताते हैं कि जब राज्य नामक संस्था अपना कर्तव्य निभाने से चूकती है तो न्यायपालिका को उसे झिंझोड़कर जगाना ही पड़ता है। देश में यह किसे पता नहीं है कि आए दिन गोरक्षा के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या कर दी जाती है, उन्हें निर्ममतापूर्वक पीटा जाता है और उनके साथ लूट-पाट भी की जाती है लेकिन राज्य सरकारें कोई ऐसा कठोर कदम नहीं उठा रही हैं, जिससे इन तथाकथित गोरक्षकों के दिल में डर पैदा हो सके। हाल ही में भारत के कई राज्यों में ऐसी 66 घटनाएं हुई हैं, जिनके दौरान गोरक्षकों ने सर्वथा निर्दोष लोगों की हत्या भी कर दी है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे अपने हर जिले में एक-एक ऐसा वरिष्ठ पुलिस अफसर नियुक्त करें, जिसका काम यही हो कि वह इन गोरक्षकों के विरुद्ध तुरंत और सख्त कार्रवाई करे। इस संबंध में अदालत इतनी मुस्तैद है कि उसने राज्यों को एक सप्ताह की मोहलत दी है और उनसे कहा है कि वे बताएं कि उन्होंने क्या कदम उठाया है। कानून और व्यवस्था को बनाए रखना राज्यों का काम है, अदालतों का नहीं। पुलिस अफसरों को कहीं लगाना, बदलना, हटाना- यह भी राज्य-सरकारों का काम है लेकिन अदालत को इस बारे में सख्त निर्देश देने पड़ें, यह किस बात का सूचक है ? क्या इसका नहीं कि हमारा राज्यतंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा है ?
यदि हमारी सरकारें सतर्क होतीं तो क्या मुहम्मद अखलाक, जुनैद खान और पहलू खान की हत्याएं हो सकती थीं ? इन तीनों हत्याओं में दोष किसका है ? हत्यारों का, जिन्होंने इन तीनों व्यक्तियों को गोमांस रखने या गोहत्या के शक में मौत के घाट उतार दिया। सिर्फ शक पर ! पहली बात तो यह कि जिन राज्यों में गोवध-निषेध का कानून है, वहां निश्चित रुप से गोवध एक अपराध है। अपराधी को दंड जरुर मिलना चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कोई भी सड़कछाप व्यक्ति या भीड़ को उस अपराधी को दंड देने का अधिकार है। देश में कानून का राज है या अराजकता है ? इसके अलावा क्या कानून में गोहत्या के लिए मानव-हत्या का प्रावधान है ? एक पशु के नाम पर एक मनुष्य की हत्या कर देना क्या अपने आप में पशुता नहीं है ? गोसेवा और गोरक्षा तो परम पवित्र कर्तव्य है लेकिन उसके नाम पर नर-हिंसा में कौनसी मनुष्यता है, कौनसा हिंदुत्व है ?
गोरक्षा के नाम पर गुंडई करने वाले लोग कौन हैं ? इन लोगों की भर्त्सना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर ही चुका है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कर चुके हैं। इन दुष्टों के लिए संघ और भाजपा को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है। हां, राजनीतिक दुष्प्रचार के लिए इस पैंतरे का दुरुपयोग जरुर किया जा सकता है। ये गोरक्षक वे हैं, जिन्होंने कभी भूखी गायों को रोटी तक नहीं डाली है, जिन्होंने तड़फ-तड़फकर गौशालाओं में मरती गायों को बचाने के लिए पत्ता भी नहीं हिलाया है और जिनके दिलों में पशुओं के लिए तो क्या, मनुष्यों के लिए भी करुणा का कोई भाव नहीं है। ये लोग इतने कमअक्ल लोग हैं कि इन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे जिसे गोमांस समझ रहे हैं, वह क्या है ? वह बकरी का, भेड़ का या भैंस का मांस तो नहीं है ?
इसके बावजूद वे निरंतर दनदनाए जा रहे हैं। इसका कारण क्या हो सकता है ? इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि वे यह मानकर चल रहे हैं कि आजकल सरकार हिंदुत्ववादियों की है और गोरक्षा हिंदुत्व का प्रमुख स्तंभ है। इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा, वे यह देख रहे हैं कि इन अपराधी गोरक्षकों को न तो समाज दंडित कर रहा है और न ही अदालतें। इस स्थिति का फायदा वे लोग भी उठा रहे हैं, अपराध ही जिनका पेशा है।
इन लोगों के साथ अब सरकारों को इतनी कठोरता से पेश आना चाहिए कि भावी हत्यारों की हड्डियां कांप उठें। सरकार से भी ज्यादा इस मामले में हमारे समाज को सक्रिय होने की जरुरत है। यह संतोष की बात है कि पिछले दिनों जब अखलाक, पहलू, जुनैद की हत्याएं हुईं तो उनके विरुद्ध प्रदर्शन करने वाले 99 प्रतिशत लोग हिंदू ही थे। गोरक्षा के नाम पर हिंदू दलितों की भी हत्याएं कम नहीं हुई हैं। इन हत्याओं को रोकने के लिए यह भी जरुरी है कि देश में गोसेवा का वास्तविक माहौल बनाया जाए। यदि बांझ, बूढ़ी और दुग्धहीन गायों को पालने का व्रत हमारे देशवासी ले लें तो गोवध अपने आप रुक जाएगा। अदालतों को भी सरकारों के कान नहीं उमेठने पड़ेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय का दूसरा फैसला भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसने केंद्र सरकार को एक हफ्ते की मोहलत दी है और कहा है कि सारे चुने हुए नेताओं की चल-अचल दौलत का हिसाब वह उजागर करे। अभी तक सभी सांसदों और मंत्रियों तथा उनके परिवारवालों की दौलत का हिसाब न तो आयकर विभाग के पास है और न ही सरकार के पास ! लोक प्रहरी संस्था ने अदालत में अपनी याचिका लगाते समय बताया कि कुछ सांसदों की दौलत पिछले पांच साल में दुगुनी हो गई, कुछ की पांच गुनी हो गई, कुछ की 12 गुनी हो गई और कुछ की 21 गुनी हो गई। यह तो वह दौलत है, जो उन्होंने बताई है। यह तो ऊंट के मुंह में जीरा है। जो नहीं बताई है, वह है, असली दौलत ! वह है, बेनामी संपत्ति, विदेश में जमा काला धन। यह करोड़ों, अरबों-खरबों की दौलत राजनीति के रास्ते बड़ी आसानी से जमा हो जाती है। यह काला धन राजनीति का बाप है और राजनीति काले धन की अम्मा है। भ्रष्टाचार और राजनीति का चोली-दामन का साथ है। इसे भंग करना अदालतों के बस का काम नहीं है। वे तो यहां-वहां थोड़ी सुइयां चुभो सकती हैं लेकिन यह काम हमारी संसद चाहे तो काफी हद तक कर सकती है।
मैं तो यह बात बहुत दिनों से कह रहा हूं कि संसद को ऐसा कानून बना देना चाहिए कि सांसदों, विधायकों, पार्षदों और पंचों को हर साल अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करना होगा। उन्हें ही नहीं, राजनीतिक दलों के समस्त पदाधिकारियों पर भी यह नियम लागू होगा। इस ब्यौरे में उनके परिवार के सदस्यों का भी ब्यौरा शामिल होगा। ऐसा कानून बनते ही 90 प्रतिशत नेता राजनीति से भाग खड़े होंगे। राजनीति में वे ही लोग आएंगे, जो कबीर के शब्दों में अपना ‘सीस उतारें, कर धरें, सो पैंठे घर माय।’ यह कानून सभी नौकरशाहों पर भी लागू किया जाए। तभी देखिए कि भारत की शासन-व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर आता है या नहीं !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, ‘सबल भारत’ जन—आंदोलन के अध्यक्ष हैं)
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