मोह तो हिन्दी से होना चाहिए

हिन्दी में काम करना तो अपने देश में हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। दरअसल, ये चुनौतियां कभी खत्म नहीं होतीं। जिस भाषा को बोलने-बरतने वाले अपने यहां पचपन करोड़ हों, वहां इसे दोयम दर्जे की नागरिकता आखिर क्यों हो। हिन्दी बोलने-बतियाने वाले खुद को अंग्रेजी वालों के सामने अपने को दोयम दर्जे का नागरिक समझते हों, हीन समझते हों और एक छवि यह बनी हो कि ज्ञान का सारा ठेका अंग्रेजी वालों के पास है तो इससे बड़ी चुनौती और क्या हो सकती है।
दुनिया के किसी भी देश में ऐसा नहीं है कि जिस भाषा को बहुसंख्यक लोग बोलते हों वह आज़ादी के इतने दिनों बाद भी सरकारी कामकाज की भाषा न बन पाई हो। साथ ही लोगों के मन में यह बात बैठा दी गई हो कि अगर वे सिर्फ हिन्दी ही जानते हैं तो उनकी तरक्की और आगे बढ़ने के सारे रास्ते बंद हैं। इस लेखिका का निजी अनुभव भी बताता है कि हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों के सीवी एक तरफ खिसका दिए जाते हैं।
यही नहीं जब जिसकी मर्जी आती है, वह अपने-अपने कारणों से हिन्दी को पीट लेता है। तमिलनाडु में अरसे से यह होता रहा है। यहां तक कि जब जलीकट्टू के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे थे तब भी हिन्दी को गालियां पड़ रही थीं। तमिलनाडु में डीएमके की तो सारी राजनीति ही हिन्दी विरोध पर चलती रही है। हाल ही में अभिनेता कमल हासन ने कहा कि वह भी हिन्दी विरोधी आंदोलन में हिस्सा ले चुके हैं। यह भी एक विचित्र स्थिति है। कमल हासन को हिन्दी फिल्मों में काम करने से कोई परहेज नहीं रहा। बल्कि कई दक्षिण भारतीय अभिनेता, अभिनेत्रियों को हिन्दी फिल्मों में ही आकर असली पहचान मिली। मशहूर बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी ने एक बार कहा था कि जब उनकी रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद हुआ तभी उन्हें पूरे देश में पहचाना जाने लगा।
हाल ही में कर्नाटक में जो कुछ हुआ वह हिन्दी विद्वेष का खतरनाक उदाहरण है। बंगलुरु मेट्रो में तीन भाषा फार्मूले के अंतर्गत कन्नड़, हिन्दी और अंग्रेजी में स्टेशनों के नाम लिखे हुए थे। बस इसे विरोध का मुख्य मुद्दा बनाकर कहा जाने लगा कि मेट्रो के जरिए कर्नाटक में हिन्दी थोपने की कोशिश की जा रही है। और बाकायदा हिन्दी के खिलाफ वहां आंदोलन शुरू कर दिया गया। जहां भी हिन्दी में कुछ लिखा था, उस पर बढ़-चढ़कर कालिख पोती जाने लगी। इसे कन्नड़ स्वाभिमान और कन्नड़ अस्मिता की रक्षा का नाम दिया जाने लगा। कांग्रेस पार्टी जो वैसे तो देश की एकता और अखंडता की बात करती है, लेकिन उसने इस आंदोलन को खूब हवा दी। यहां तक कि मुख्यमंत्री सिद्धा रमैया बोले कि हिन्दी न राष्ट्रभाषा है, न हो सकती है। दरअसल, वहां चुनाव होने वाले हैं और कांग्रेस अपनी पुरानी रणनीति के तहत ही वोट बटोरने की कोशिश कर रही है। चूंकि कोई और मुद्दा नहीं मिल रहा था, जिसके जरिए अपने पांच साल के शासन की बुराई छिपाकर, लोगों के वोट बटोरे जा सकें तो हिन्दी विरोध ही सही। वहीं हिन्दी विरोध को कुछ राष्ट्रीय कहे जाने वाले अंग्रेजी चैनलों ने खूब हवा दी। पिट हिन्दी रही थी लेकिन इन चैनल्स में बताया जा रहा था कि जैसे हिन्दी ही दूसरी भाषाओं को पीट रही है। जब भी हिन्दी के खिलाफ कोई आंदोलन कहीं भी होता है, तो अक्सर अंग्रेजी मीडिया उसे लपक लेता है। वह आगे बढ़-बढ़कर हिन्दी को पीटता है। हालांकि चलता वह हिन्दी के कारण ही है। हिन्दी के विज्ञापन न हों और उनसे होने वाली मोटी कमाई न हो तो ये चैनल्स एक दिन न चलें। वहीं इनके बरअकस हिन्दी का मीडिया अक्सर ही हिन्दी की पिटाई पर चुप्पी लगा जाता है। शायद हिन्दी मीडिया को लगता है कि कहीं हिन्दी का पक्ष लेने पर उसे पिछड़ा हुआ न मान लिया जाए। जिस तरह कर्नाटक में हिन्दी पर कालिख पोती गई, तमिलनाडु में यह होता ही रहा है।
कुछ साल पहले कार से चेन्नई से पुडुचेरी जाना हुआ था। वहां जहां भी सड़क के किनारे गांवों, शहरों के नाम लिखे थे वहां अंग्रेजी तमिल को छोड़कर, हिन्दी के ऊपर कालिख पोत दी गई थी। इन क्षेत्रीय दलों को अंग्रेजी से कोई शिकायत नहीं है। जबकि सच यह है कि जिस तरह हिन्दी की जगह को अंग्रेजी हड़प रही है, इन भाषाओं को भी असली खतरा अंग्रेजी से ही है, मगर इन दलों को मालूम है कि अंग्रेजी का विरोध करके वोट नहीं मिलते।
क्या आपने हिन्दी क्षेत्रों में इस तरह किसी भाषा विशेष के बारे में नफरत फैलाना देखा है। क्या भाषा के नाम पर यहां कभी कोई लड़ाई-झगड़ा होता है।
लेकिन कुछ गलती हिन्दी के लोगों की भी है। किसी सभा-समारोह में जाइए। यदि वहां हिन्दी वालों का वर्चस्व हो भी तो भी वे अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं। कुछ लोग तो गौरवपूर्वक यह भी कहते पाए जाते हैं कि उनकी हिन्दी अच्छी नहीं है। यानी कि हिन्दी अच्छी न जानने को वे अपनी एक विशेषज्ञता की तरह देखते हैं। जबकि अगर दो बांग्लाभाषी मिलें या दो मलयालम वाले अथवा दो तमिल, वे फौरन आपस में अपनी मातृभाषा में बात करने लगते हैं। उनमें हिन्दी वालों की तरह यह दिखावा नहीं है कि अगर हम बड़े पद पर काम करते हैं, अमीर हैं, समाज में अच्छी पद–प्रतिष्ठा रखते हैं तो हमारी ताकत तभी बनी रह सकती है, जब हिन्दी को छोड़कर हम अंग्रेजी बोलें। आखिर हम लोगों का अंग्रेजी के प्रति इतना मोह भी किस काम का है।

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *