लेखक > चंडी प्रसाद भट्ट, प्रसिद्ध पर्यावरणवि
हिमालय को भारतीय संस्कृति और मनीषा के केंद्र में रखा गया है। यह हमारी संस्कृति ही नहीं, संसाधनों का भी आधार है। इसकी मिट्टी, जल, वनस्पतियां, जंगल आदि सिर्फ यहां के मानव-जीवन व पर्यावरण को ही प्रभावित नहीं करते, बल्कि भारतीय उप-महाद्वीप के जीवन और उसकी आर्थिकी पर भी इनका असर पड़ता है। यह मानव समाज द्वारा निर्मित कार्बन को धारण करने वाले जंगलों को अपने में समेटे है।
हिमालय से तीन नदी-प्रणालियां निकलती हैं- गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु। ये तीनों जल-प्रणालियां देश की 43 प्रतिशत भूमि में फैली हैं। साथ ही, नेपाल में जन्म लेने वाली चार दर्जन के लगभग छोटी-बड़ी नदियां भी गंगा की सहायक घाघरा, बूढ़ी गंडक, गंडक, कोसी आदि में समाहित होती हैं। इन नदियों में देश के सकल जल का 63 प्रतिशत बहता है। ये नदियां ही भारत की भाग्य विधाता हैं। इन तीनों नदियों में गंगा का महत्व किसी से छिपा नहीं है। यह आस्था से जितनी जुड़ी है, उससे अधिक हमारे अस्तित्व से जुड़ी है। इसका बेसिन भारत के 26 प्रतिशत क्षेत्र में फैला है और देश के कुल जल का 25 प्रतिशत गंगा व उसकी सहायक नदियों में बहता है। भारत के नौ राज्यों में गंगा के बेसिन का फैलाव है और देश की 41 प्रतिशत आबादी इसके बेसिन में निवास करती है।
दुनिया की आक्रामक नदियों में से एक मानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र हिमालय की कैलाश पर्वत शृंखला के उत्तरी भाग से निकलकर तिब्बत (चीन) में सांगपो के नाम से जानी जाती है। अरुणाचल प्रदेश में इसे सियांग कहा जाता है। आगे दिवांग-लोहित आदि नदियों से मिलने के बाद यह ब्रह्मपुत्र बन जाती है। ब्रह्मपुत्र भारत में 33.71 प्रतिशत जलराशि का योगदान करती है। सिंधु नदी तिब्बत से निकलकर जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करती है, जिसके बाद वह पाकिस्तान चली जाती है। सिंधु बेसिन का भारत में क्षेत्रफल 9.8 प्रतिशत है और जलराशि 4.28 प्रतिशत।
पिछले चार-पांच दशकों से हिमालय में मनुष्य की घुसपैठ बढ़ी है। खगोलीकरण ने इस प्रक्रिया को बढ़ा दिया है। जलवायु-परिवर्तन इसका एक और आयाम है। इसके प्रभाव की समझ सरकारों व समाजों में ठीक से नहीं बन सकी है, इसीलिए इनके द्वारा इसे नियंत्रित किया जाना अत्यधिक कठिन है। ऊपर से वनों का विनाश, नदियों के आसपास तीव्र विकास, बाजार का दबाव, शिथिल कार्यान्वयन, अतिक्रमण और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव जैसे कारकों ने हिमालयी नदियों में आपदाओं को कई गुना बढ़ा दिया है।
अगर 20वीं सदी की बात छोड़ भी दें, तो 2000 से 2015 के मार्च तक भी हर साल कोई न कोई आपदा आती रही है। चाहे 2000 की सिंधु-सतलुज और सियांग-ब्रह्मपुत्र की बाढ़ हो या 2004-2005 की सतलुज की बाढ़ या 2008 की कोसी की बाढ़ या 2010 की लेह नाले या अस्सी गंगा की पिछले दो-तीन वर्षों की बाढ़- इन सभी ने हिमालय के स्वभाव पर मानवीय हस्तक्षेप के प्रभाव को उजागर किया है। ब्रह्मपुत्र की बाढ़ का दायरा हर साल बढ़ता जा रहा है। 2013 के मध्य जून से शुरू हुई गंगा की सहायक धाराओं- अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, यमुना, भिलंगना, सरयू, रामगंगा, गौरी, धौली, काली आदि नदियों में आई प्रलयकारी बाढ़ से हुई उत्तराखंड की त्रासदी ने सबको गंभीर विश्लेषण करने के लिए विवश कर दिया है। बाद में 2014 और 2015 में जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ ने भी यह सोचने को विवश कर दिया है कि नदियों, तालाबों में आने वाली गाद (सिल्ट) की मात्रा को अति-प्राथमिकता के आधार पर यदि नहीं रोका गया, तो इसके भयंकर दुष्परिणाम सामने आते रहेंगे। पिछले दो वर्षों में बाढ़ और भू-स्खलन से जान-माल की जितनी अधिक क्षति हुई है, उतनी पहले कभी नहीं हुई थी।
आज पूर्व सूचना तंत्र स्थानीय, हिमालयी, एशियाई और वैश्विक स्तर पर होना चाहिए, ताकि मानव जीवन को आपदाओं से बचाया जा सके। इसके लिए भारत, चीन, नेपाल और भूटान का एक संयुक्त तंत्र बनना चाहिए। हिम-स्खलन और भू-स्खलन से लेकर बाढ़ से सुरक्षा तक के लिए यह जरूरी है। साथ ही, बारिश की मारक क्षमता को कम करने के कार्य भी बड़े पैमाने पर होने चाहिए। हिमनदों, हिमतालाबों, बुग्यालों और जंगलों की संवेदनशीलता की व्यापक जानकारी होनी चाहिए। कुछ खास संवेदनशील जलागमों में पिछले 10 साल से हुए परिवर्तनों का उपग्रह के आकड़ों के जरिये अध्ययन होना चाहिए, ताकि जलागमों पर पड़ रहे दबाव का आकलन किया जा सके और दबाव को कम करने की वैकल्पिक व्यवस्थाओं के बारे में सोचा जा सके।
आपदाओं के प्राकृतिक के साथ-साथ मानव निर्मित कारणों की भी गंभीर पड़ताल होनी चाहिए। वैज्ञानिक बताते हैं कि जहां 1894 की मध्य हिमालय की अलकनंदा बाढ़ पूरी तरह प्राकृतिक थी, वहीं 1970 की अलकनंदा बाढ़ को विध्वंसक बनाने में जंगलों के कटान का योगदान रहा। इसके बाद हमने वनों को बचाने व बढ़ाने के लिए चिपको आंदोलन शुरू किया। वहीं 2013 में विस्फोटकों के अनियंत्रित इस्तेमाल, नदी क्षेत्र में बड़ी परियोजनाओं के निर्माण-कार्य और हिमनदों-हिमतालाबों व बुग्यालों में छेड़छाड़ का भी योगदान रहा। आपदा के प्रभाव तथा दुष्प्रभाव के साथ जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए। ‘किया किसने और भुगता किसने’ इसे भी सामने लाना जरूरी है।
नदी के प्रभाव क्षेत्र में घुसपैठ तथा अनियंत्रित शहरीकरण जैसे पक्षों की गहरी व सतर्क व्याख्या जब तक नहीं होगी, तब तक कि हम कारण भी नहीं जान सकेंगे, निवारण तो दूर की बात है। इसी तरह, हिमालय में किसी भी तरह की मानवीय छेड़छाड़ की पहले ही पड़ताल होनी चाहिए। समय रहते इन सब बातों को अमल में नहीं लाया गया, तो और भी भयंकर त्रासदी को नकारा नहीं जा सकता है। फिर जिम्मेदारी को समझने की बजाय पहाड़ और नदियों को ही हम कोसेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं