वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू होने के बाद से ही कई अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में अगर सरकार यह चाहती है कि क्रियान्वयन में खामी के चलते जीएसटी का सपना अधूरा न रह जाए तो जरूरी है कि वह सतर्कता बरते और तेजी से काम करे। मसलन, जुलाई के महीने में जीएसटी के तहत 95,000 करोड़ रुपये का जो राजस्व जमा हुआ है उसमें से करीब 62,000 करोड़ रुपये का तो इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा किया गया है। इनपुट टैक्स क्रेडिट के भुगतान के बाद अगर केवल 33,000 करोड़ रुपये ही बचते हैं तो इस नई अप्रत्यक्ष कर प्रणाली की राह में एक बड़ी समस्या के तौर पर देखा जाएगा। बहरहाल महत्त्वपूर्ण है कि हम जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया न दें क्योंकि यह केवल एक बार की समस्या भी हो सकती है। जीएसटी लागू होने के ऐन पहले कारोबारियों ने जिस तरह से अपना अधिकांश माल निकाल दिया था, यह उसका भी नतीजा हो सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इनपुट टैक्स पुरानी और ऊंची दर पर दिया गया है लेकिन अंतिम टैक्स नई दर पर लगा है। वैसे स्वाभाविक तौर पर यह समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं होगा। लेकिन इसी के साथ कई दूसरी और अधिक व्यवस्थागत समस्याएं भी उभर रही हैं।
जीएसटी की कामयाबी के लिए जीएसटीएन के रूप में सशक्त डिजिटल ढांचे की मौजूदगी बेहद जरूरी है। लेकिन कारोबारियों को अक्सर इस नेटवर्क पर पंजीकरण करने और बिल अपलोड करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। साफ है कि यह व्यवस्था लागू करने के पहले जीएसटीएन पर पडने वाले बोझ का सही तरह से आकलन नहीं किया गया। इसके लिए जितनी अतिरिक्त क्षमता तैयार करने की जरूरत है उसे प्राथमिकता के आधार पर किया जाए। दूसरी समस्या का संबंध जीएसटी के मौजूदा ढांचे से जुड़ा हुआ है। कारोबारियों का कहना है कि इनपुट क्रेडिट तब तक किसी खरीदार को नहीं मिलता है जब तक आपूर्तिकर्ता ने उस वस्तु या सेवा पर कर का भुगतान न कर दिया हो। यह प्रावधान पहले भी गैरजरूरी लगता था क्योंकि खरीदारी की असली रसीद होना इसके लिए काफी होना चाहिए। यह ध्यान में रखना होगा कि कर भुगतान को सुनिश्चित करना खरीदार की नहीं बल्कि सरकार की जिम्मेदारी होती है।
फिलहाल तो यही हाल हैं कि खरीदारों को रिटर्न की प्रक्रिया पूरी होने के बाद 10 दिनों तक इंतजार करना होगा और उसके बाद उन्हें यह पता चल पाएगा कि वे क्रेडिट के हकदार हैं या नहीं। इस वजह से कारोबारियों को कार्यशील पूंजी में वृद्धि का इंतजाम करना पड़ रहा है जिससे कई छोटे कारोबारियों का कामकाज बुरी तरह बाधित हुआ है। रसीदों का मिलान भले ही सैद्धांतिक तौर पर पारदर्शिता बढ़ाने की एक चतुर व्यवस्था लगे लेकिन यह समूची जीएसटी प्रणाली की क्षमता पर अतिशय तनाव डाल सकता है। लाखों रसीदों का मिलान करना होगा जिससे कई तरह के छद्म सकारात्मक एवं नकारात्मक तत्व जुड़ जाएंगे। जीएसटी प्रणाली को इस तरह से डिजाइन करने की जरूरत है कि रसीद मिलान में लगने वाली क्षमता को कम किया जा सके। निश्चित तौर पर कर का पहले भुगतान किए जाने की अनिवार्यता का कार्यशील पूंजी और लाभप्रदता पर पड़ रहे असर पर निगाह रखी जानी चाहिए और अगर जरूरी लगे तो उस प्रावधान में बदलाव भी किए जाएं।