कांग्रेस को सुधारना राहुल की असल चुनौती

राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी होने के बाद प्रदेश में कांग्रेस के अच्छे दिन आने की उम्मीद मौजूदा हालात में नहीं दिखती। करीब 27 वर्ष से प्रदेश में सत्ता से दूर कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने को आमूलचूल परिवर्तन जरूरी है। हालिया संगठनात्मक ढांचे व चेहरों से कोई चमत्कार की उम्मीद खुद स्थानीय कांग्रेसियों को भी नहीं है। चुनावी कुप्रबंधन व संगठन की सुस्ती का परिणाम रहा कि कांग्रेस को अमेठी और रायबरेली जैसे अपने गढ़ों में मुंह की खानी पड़ रही है। वर्ष 2012 के निकाय चुनाव के परिणामों से तुलना करें तो कांगेस नगर पंचायत, पालिका परिषद व नगर निगमों में और कमजोर हुई है। नगर निगम पार्षदों की गिनती में इजाफा हुआ परंतु नगर निगमों की बढ़ी संख्या की दृष्टि से देखें तो उपलब्धि इतराने जैसी नहीं। गत 2012 में प्रदेश में नगर निगमों की संख्या 12 थी जो 2017 में बढ़कर 16 हो गई है। वर्ष 2012 में कुल 100 पार्षद विजयी हुए थे जबकि इस बार 110 पार्षद जीत सके हैं। प्रदेश कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट नेताओं व कार्यकर्ताओं के बीच बढ़ते हुए फासले है। ब्लाक व वार्ड स्तर के कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। जिला व प्रदेश कमेटियों की नियमित बैठकें न होने से आपसी संपर्क-संवाद कमजोर हुआ है। निचले स्तर के कार्यकर्ताओं व नेताओं की दूरियां कम कराने की कोशिश पूर्व प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री और प्रभारी महासचिव मधुसूदन मिस्त्री ने की परंतु प्रशांत किशोर (पीके) के प्रयोग ने सब चौपट कर दिया। लगातार दस वर्ष केंद्र में यूपीए सरकार रहने का लाभ संगठन को न मिल सका। पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद जनता को जोडऩे में नाकाम रहे। एक पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष का कहना है कि बड़े नेता गांव या वार्ड तो दूर पार्टी दफ्तरों में भी जाना उचित नहीं समझते। केवल राहुल को चेहरा दिखा कर जिम्मेदार पदों पर जमे रहने वालों ने कार्य संस्कृति को बिगाड़ा। छात्र व युवा इकाइयों में संगठन चुनाव कराने का प्रयोग पूरी तरह फेल सिद्ध हुआ। अब भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन और युवक कांग्रेस की पहले जैसी धमक न रह गई। युवक कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष रहे वरिष्ठ नेता कहते है कि छात्रों और युवाओं को जोडऩे के लिए संगठन का फिर से पुराना फार्मूला अपनाना होगा। संगठन में बढ़ती अनुशासहीनता और चहेतों को ही पद व टिकट बंटवारे में तरजीह की परंपरा कांग्रेस के लिए आत्मघाती है। इसके अलावा शीर्ष स्तर पर फैसले लेने में अनावश्यक विलंब होने का नुकसान भीे भुगतना पड़ रहा है।

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